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प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था

कमल किशोर मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :231
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1320
आईएसबीएन :81-263-0991-1

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प्रस्तुत है प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था...

Pracheen Bharat ki Arth Vyavastha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत ग्रन्थ में भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त आठवीं शती तक के 447 अभिलेखों पर आधारित तत्कालीन अर्थव्यवस्था के अनेक पक्षों का अध्ययन किया गया है,जिनमें भूमि-प्रबन्धन, भू-माप की इकाई, कृषि या सिंचाई, प्रबन्धन, वाणिज्य-व्यापार तथा राजस्व प्रबन्धन प्रमुख है।

पुरोवाक्

प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था, संस्कृत अभिलेखों के आधार पर एक ज़मीन तोड़ने का प्रयत्न है। अधिकतर अर्थव्यवस्था के बारे में चर्चा, समकालीन पुस्तकों के साक्ष्य के आधार पर होती रही है। वे साक्ष्य आवश्यक नहीं कि राजशासन से किसी प्रकार सम्बन्ध रखते हों। प्राचीन अभिलेख, राजशासन के रीति-नीति पर अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक रूप से ही अपने समय की स्थिति की झाँकी देते हैं। उनके आधार पर भाषा केन्द्रित अध्ययनों के द्वारा कला, इतिहास और धार्मिक प्रयोजनों से किये गये दान, यज्ञ के विषय में जो प्रामाणिक जानकारी मिलती है, इस पर विशद अध्ययन हुआ है किन्तु अभिलेखों के आधार पर अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत भूमि तथा उससे जुड़े पक्ष-कृषि व्यवस्था, सिंचाई वाणिज्य-व्यापार, राजस्व प्रबन्धन आदि के बारे में व्यवस्थित एकान्तिक अध्ययन बहुत कम हुआ है। इस दृष्टि से शोधकर्ता कमल ने बड़े परिश्रम और ईमानदारी के साथ प्रबल, तटस्थ भाव से एक अनछुये क्षेत्र का परिमापन किया है।

कमल ने परिशिष्ट के रूप में 14 तालिकाएँ दी हैं और अध्ययन में प्रयुक्त अभिलेखों की सूची सन्दर्भ-सहित, पारिभाषिक शब्दावली तथा चुने हुए बाईस (22) अभिलेखों के छायाचित्र भी दिये हैं, उदाहरण के लिए सोहगौरा ताम्रपत्र अब तक के प्राप्त ताम्रपत्रों में सबसे पुराना है। इसमें संकटकाल को ध्यान में रखकर अनाज संचित करके भण्डार रखने का संकेत है। एक तरह से संकट समाधान के लिए एक श्लाघनीय राजकीय प्रयास का साक्ष्य है। दशपुर (मंदसौर) के बुनकरों के शिलालेख में यह सूचित होता है कि विभिन्न व्यवसायों की श्रेणियाँ बहुत समृद्ध थीं और वे मन्दिरों, तड़ागों आदि के निर्माण में बहुत योगदान करती थीं। रुद्रदामन के गिरनार शिलालेख (गुजरात) में एक बहुत बड़े सरोवर के निर्माण की बात कही है। इस क्षेत्र में पानी की कमी है। यह कार्य भी जनहित के लिए प्रशंसनीय प्रयास है। कमल ने कृषिभूमि के रूप में भारतवर्ष के राजनैतिक परिदृश्य का विहंगम ऐतिहासिक प्रत्यवलोकन किया है। इस दृष्टि से स्पष्ट होता है कि शासन बहुत कुछ विकेन्द्रित था। केन्द्रीय सत्ता एक संयोजक सत्ता थी, छोटे-छोटे राज्य अपने आप में स्वायत्त थे। वैसे ही गाँव के स्तर पर स्वायत्तता थी, श्रेणियों के स्तर पर भी स्वायत्तता थी। सबके सहयोग से भारतवर्ष आठवीं शताब्दी तक समृद्धि के उत्कर्ष की स्थिति में रहा है। यह प्रबन्ध इस दृष्टि से बहुत उपयोगी सिद्ध होगा।

प्रस्तावना

आर्थिक जीवन किसी भी समाज की सर्वतोमुखी अभिवृद्धि का आधार होता है। पुरुषार्थों में ‘अर्थ’ की गणना भी इस तथ्य की ओर संकेत करती है। दुर्भाग्यवश भारतीय चिन्तन परम्परा को आध्यात्मिक या पारलौकिक करार देते हुए आर्थिक-विमर्श के लिए अनुपादेय घोषित कर दिया जाता है। इस तरह का भ्रम आधारहीन है और तथ्यों की अनदेखी कर प्रचलित हुआ है। भारतीय समाज और इसकी सांस्कृतिक प्रथाएँ तथा परम्पराओं की जड़ें गहरी हैं और उनमें निरन्तरता है। पाश्चात्य विचारों के प्रभुत्व तथा औपनिवेशिक मानसिकता के कारण ये आवरण से आच्छादित हो गयी हैं और उन्हें सुग्राह्य ढंग से उपस्थित करना आज की एक महत्त्वपूर्ण बौद्धिक चुनौती है। ऐसा करना मात्र आत्मश्लाघा न होकर भारतीय यथार्थ की दृष्टि से पर्यालोचन और आवश्यक परिष्कार का मार्ग प्रशस्त करेगा। इस प्रकार का प्रयास ज्ञान के अनेक क्षेत्रों में आरम्भ हुआ है। देशज ज्ञान परम्परा का पुनराविष्कार और अनुसन्धान देश को आत्मनिर्भर बनाने में भी सहायक सिद्ध हो रहा है।
भारतीय ज्ञान परम्परा इस दृष्टि से भी विचारणीय है कि उसके तत्त्व आश्चर्यजनक रूप से मनुष्य और समग्र सृष्टि को सम्बोधित करते हैं। भूमण्डलीकरण के वर्तमान समय में जब परस्पर निर्भरता वैश्विक जीवन का मूलमन्त्र बनती जा रही है, भारतीय जीवन दृष्टि और भी प्रासंगिक हो गयी है। स्मरणीय है कि भारतीय ज्ञान परम्परा मात्र शास्त्रीय नहीं है जैसा कि प्रायः प्रचलित किया गया है। शास्त्र के साथ वह लोक व्यवहार में भी अवस्थित है। शास्त्र और लोक दोनों एक दूसरे के साथ सम्पृक्त रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत अध्ययन भारतीय अर्थव्यवस्था पर संस्कृत अभिलेखों के सन्दर्भ में विचार की परम्परा को आगे बढ़ाने का प्रयास करता है।

संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थ निर्विवाद रूप से भारतीय संस्कृति, सभ्यता तथा ज्ञान-विज्ञान के विपुल भण्डार हैं। इस आधार पर प्रायः देववाणी संस्कृत को श्रद्धा और आदर तो दिया जाता है परन्तु व्यवहृत भाषा के रूप में उसे जीवन्त नहीं माना जाता। प्राचीन भारतीय अभिलेखों में संस्कृत का प्रचुर उपयोग इस रूढ़ि को तोड़ता है और इसका प्रमाण प्रस्तुत करता है कि यह दैनिक व्यवहार तथा राजकाज की भी भाषा थी। आज जब हम प्राचीन भारतीय इतिहास को समझने चलते हैं तो संस्कृत भाषा के अभिलेखों से महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलती है।

इतिहास के आधुनिक विद्यार्थी के लिए प्राचीन भारत को समझना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। यहाँ समय निरन्तर गतिमान है और जीवन से सम्बन्धित तथ्य व घटनाएँ वास्तव में जीवन्त परम्परा का ही भाग है। इस दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास के समग्र अध्ययन के स्रोत के रूप में संस्कृत अभिलेखों का विशेष महत्त्व है। इन अभिलेखों में उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री समकालीन तथ्यों तक पहुँचने के लिए हमारा मार्ग प्रशस्त करती है। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित ऐतिहासिक अध्ययन की सुदीर्घ परम्परा है, परन्तु इस दृष्टि से मुख्य आधार के रूप में अभिलेखों के व्यापक अध्ययन का अभाव रहा है। परिणामतः अनेक तथ्य अनुद्घाटित रह गये हैं। प्रस्तुत शोध की संकल्पना इसी अभिलेखीय सामग्री को इतिहास-स्रोत स्वीकार कर प्राचीन भारत के आर्थिक जीवन को समझने के लिए की गयी।
प्राचीन भारतीय आर्थिक जीवन से सम्बन्धित ऐतिहासिक व सैद्धान्तिक दोनों ही दृष्टियों से ग्रन्थों का प्रणयन सुदीर्घकाल से होता आया है। परन्तु इस दृष्टि से मुख्य आधार के रूप में अभिलेखों के आद्योपान्त अध्ययन का अभाव रहा है।

परिणामतः बहुत कुछ तथ्य अनुद्घाटित रह गये हैं तथा आर्थिक जीवन सम्बन्धी विवरण बहुत ही सरसरी रह गया है।
अतः इस वस्तुस्थिति को ध्यान में रखकर प्रस्तुत अध्ययन की संकल्पना की गयी है। यहाँ अभिलेखीय सामग्री को व्यवस्थित कर प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था के विविध आयामों को यथासम्भव समग्रता के आलोक में प्रस्तुत करने का प्रयास रहा है। विषय की दृष्टि से इस अध्ययन को आठ अध्यायों में व्यवस्थित किया गया है। अध्याय एक—प्रस्तुत अध्ययन की आधारभूमि में विवेच्य विषय के तर्क-संगत चयन हेतु किये गये प्रयासों को संक्षिप्त एवं सारगर्भित रूप में अभिलेखीय पृष्ठभूमि पर रखा है।
शोध का विषय ‘आठवीं शताब्दी तक भारतीय अर्थव्यवस्था के बदलते आयाम’ है, अतः इस कालावधि में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजवंशों के महत्त्वपूर्ण राजनीतिक परिदृष्य को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि इसका सम्बन्ध स्थानीय अर्थव्यवस्था से है। अध्याय दो में इस दृष्टिकोण को ध्यान में रख, आठवीं शताब्दी तक की कालावधि के राजनीतिक परिदृश्य को प्रस्तुत किया है।

अध्याय तीन-भूप्रबन्धन में भूमि के प्रकार तथा भू-स्वामित्व व उसके हस्तान्तरण से सम्बन्धित विविध पक्षों का अभिलेखों के आलोक में परीक्षण है। भूमि के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए भूस्वामित्व से सम्बन्धित वैधानिक पहलू पर विचार के संकेत भी अभिलेखों में स्पष्टतः दिखलाई पड़ते हैं। जहाँ भूमि के क्रय-विक्रय का प्रसंग अभिलेखों में दृष्टिगत होता है, वहाँ मौद्रिक प्रणाली की व्यवस्था भी दिखलाई पड़ती है। इस सन्दर्भ में सोने, चाँदी व ताँबे के सिक्कों की उपयोगिता दृष्टिगत होती है।
अध्याय चार-भूमापन में भूमि के माप के इकाई का विश्लेषण है। इस अध्याय से तत्कालीन भूमाप की इकाई तथा इससे सम्बन्धित पहलुओं को भी देखा जा सकता है।
अध्याय पाँच-कृषि व सिंचाई प्रबन्धन में कृषि की व्यापकता का स्पष्टतः पता चलता है। आज की ही तरह कृषि और सिंचाई तत्कालीन आर्थिक जीवन को निश्चित तौर पर एक महत्त्वपूर्ण आधार प्रदान करते थे।

वाणिज्य और व्यापार नामक अध्याय छः में तत्कालीन बाजार व्यवस्था व आर्थिक प्रबन्धन को अभिलेखों के आलोक में प्रस्तुत किया गया है। कृषि का सम्बन्ध बाजार, उत्पादित वस्तुओं तथा उत्पादक व व्यापारिक समुदाय से प्राचीन काल से ही रहा है। इस बात की पुष्टि समकालीन संस्कृत अभिलेखों से हो जाती है।
राजस्व प्रबन्धन नामक अध्याय सात में, राजस्व से सम्बन्धित वैधानिक, सैद्धान्तिक व व्यावहारिक तीनों ही पक्षों का निर्देशन तत्कालीन अभिलेखों से होता है। इन्हीं को आधार बनाकर राजस्व प्रबन्धन से जुड़े विविध पक्षों को प्रस्तुत अध्याय में व्यवस्थित किया है।
अध्याय आठ—सारांश तथा निष्कर्ष में आठवीं शताब्दी तक की कालावधि में भारतीय अर्थव्यवस्था के बदलते आयाम के सूत्र का विशद वर्णन है।

इसके अतिरिक्त चार मुख्य बिन्दुओं पर परिशिष्ट हैं। पहला—अध्ययन से सम्बन्धित सामग्री को तालिकाबद्ध किया गया है। दूसरे अध्ययन में इससे सम्बन्धित प्रतिनिधि अभिलेखों के छाया-चित्रों को रखा गया है। तीसरे में प्रयुक्त अभिलेखों की सूचि तथा उनका सन्दर्भ है तथा चौथे में पारिभाषिक शब्दावली दी गयी है। इनके प्रति कृतज्ञता तथा यद्यपि अभिलेखों सम्बन्धी लिपि का विवेचन प्रस्तुत शोध कार्य का विषय नहीं है फिर भी कुछ प्रतिनिधि अभिलेखों के छाया-चित्र जोड़ दिये गये हैं। शोध-प्रबन्ध व उसके मूलाधारों को यथासम्भव एकत्र रखने की दृष्टि से ही यह किया गया है।
प्रस्तुत कार्य की परिकल्पना साकार न होती यदि मुझे आदरणीय गुरुजन तथा मित्रों का स्नेह और सहयोग न मिला होता। इनके प्रति कृतज्ञता तथा धन्यवाद ज्ञापन करना मैं अपना कर्तव्य मानता हूँ।
इस पुस्तक का बड़ा हिस्सा प्रकारान्तर से पी.एच.डी. हेतु प्रस्तुत मेरे शोध-प्रबन्ध आठवीं शती तक भारतीय अर्थव्यवस्था के बदलते आयाम : संस्कृत अभिलेखों के साक्ष्य से का ही संशोधित, परिष्कृत एवं अद्यतन संस्करण हैं। श्रद्धेय डॉ. एस.एस. राणा, तत्कालीन डीन ऑफ कॉलेजज़, दिल्ली विश्वविद्यालय के निर्देशन में यह अनुसन्धान करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इनके मार्गदर्शन तथा पर्यवेक्षण से मैं निरन्तर लाभान्वित होता रहा।

भारतीयता और भारतीय चिन्तन के प्रतिरूप डॉ. कर्ण सिंह ने अनुग्रहपूर्वक मेरी प्रगति का समय-समय निरीक्षण करते रहने की कृपा की। उन्होंने जो प्रेरणा व आशीर्वाद प्रदान किया है, उसे शब्द दे पाना सम्भव नहीं।
आदरणीय डॉ.विद्यानिवास मिश्र ने इस पुस्तक के लिए आशीर्वाद के रूप में जो ‘पुरोवाक्’ लिखा है, इसके लिए उनका मैं बहुत उपकृत हूँ।
मैसूर स्थित भारतीय पुरातत्त्व विभाग, पुरालिपि केन्द्र में सामग्री संकलन तथा विवेचन में वहाँ के अनेक इतिहासज्ञों ने मेरी अहैतुक सहायता की। मैं इनके प्रति आभारी हूँ।
जुबली हॉल के अन्तेवासी के रूप में मनोविज्ञान के आचार्य प्रो. गिरीश्वर मिश्र, तत्कालीन प्रोवोस्ट, जुबली हॉल, दिल्ली विश्वविद्यालय के सम्पर्क में आया। तब से लेकर आज तक इनके अविस्मरणीय सहयोग का अनुभव प्राप्त करते हुए सामग्री-संकलन एवं प्रस्तुति के विविध आयामों को समझता रहा। इन्होंने प्रस्तुत विषय की पाण्डुलिपि को आद्योपान्त पढ़ अनेक स्थलों पर सुझावों द्वारा अमूल्य योगदान दिया है।

प्रस्तुत विषय में सम्बन्धित अध्ययन हेतु एक माह के कनाडा प्रवास के क्रम में श्री सी.एम. भण्डारी, कनाडा में भारत के तत्कालीन प्रधान कौंसल ने अनेक प्रकार से सहयोग कर मार्ग प्रशस्त किया।
निरन्तर मेरे उत्साह को बढ़ाने वाली आदरणीया माताजी, दीदी शोभना नारायण व श्री विनय भैया मेरी शोध की प्रगति में रुचि लेते रहे और मेरी गति को त्वरित किया।
सहयोग, सुझाव व प्रोत्साहन से प्रस्तुत कार्य को अद्यतन रूप तक पहुँचाने के लिए अनुजा विपंची मिश्रा, आनन्द पाठक, सन्तोष एवं सुजीत कु. सिंह, प्रतिभा परासर (सूचना एवं पुस्तकालय अधिकारी, राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली) तथा श्रीनिवास राव फोटोग्राफर, पुरालिपि विभाग, भारतीय पुरा्त्त्व एवं सर्वेक्षण विभाग मैसूर एवं जुबली हॉल के अन्तेवासी मित्रगण—मैं इन सबका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। इस क्रम में मैं अपने परिवारीजन को भूल नहीं सकता, जिनके त्याग और प्रोत्साहन ने मुझे इस योग्य बनाया।

प्रस्तुत कृति मेरे अध्ययन में प्रस्थान बिन्दु सिद्ध हुई। संस्कृत भाषा व साहित्य के व्यावहारिक रूप को उपस्थित करने का यह लघु प्रयास प्रस्तुत करते हुए मुझे अपनी सीमाओं का स्मरण हो रहा है और कालिदास को यदि उधार लूँ तो यही अनुभव होता है—तितीषुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्, तथापि विश्वास है यह कार्य सुधीजनों के ध्यानाकर्षण का ब्याज बन सकेगा।
ज्ञान के सतत प्रवाह में भारतीय ज्ञानपीठ ने इस पुस्तक के रूप में इसके प्रकाशन में रुचि ली और आप सब मर्मज्ञ पाठकों तक इसे पहुँचाया। इसलिए, भारतीय ज्ञानपीठ का मैं हार्दिक आभारी हूँ।

1. अध्ययन की आधार-भूमि

प्राचीन भारत के अभिलेख समकालीन जीवन के ज्ञान के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। प्रस्तुत अध्ययन इन अभिलेखों की सहायता से प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था के अनुशीलन का प्रयास है। भारतीय इतिहास के अध्येताओं ने प्राचीन भारत के आर्थिक पक्ष पर भी प्रकाश डाला है, परन्तु अभिलेखों को आधार बनाकर इस ओर कम ही प्रयास हुए हैं। प्रस्तुत अध्ययन का लक्ष्य प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था के विविध पक्षों को तत्कालीन अभिलेखों के आलोक में देखना है। भौगोलिक दृष्टि से सम्पूर्ण भारत से संस्कृत अभिलेखों की परम्परा ईसा की दूसरी शताब्दी से मिलने लगती है।
अवधि के विस्तार के बावजूद अविच्छिन्न परम्परा के कारण ‘भारतीय इतिहास’ किसी भी अध्येता के समक्ष एक कौतूहलपूर्ण चुनौती बन जाता है। काल के प्रति भारतीय अवधारणा इतिहास के प्रति उनके दृष्टिकोण को पश्चिमी दृष्टिकोण की तुलना में एक भिन्न धरातल पर स्थापित करती है। यहाँ पर ‘काल’ खण्डों में न बँट कर प्रत्यावर्तनशील प्रवाह माना गया है। यहाँ पर साहित्य, मिथक तथा इतिहास का अन्तर उतना स्पष्ट नहीं है जितना कि पाश्चात्य परम्परा में है। इसीलिए भारतीय इतिहास दृष्टि भिन्न प्रकार की रही है। भारतीय इतिहासकार यथातथ्य वर्णन को परम लक्ष्य नहीं मानते। इसीलिए इतिहास के आधुनिक अर्थ में अनैतिहासिक भारतीय समाज के इतिहास की रचना में अपेक्षाकृत अधिक पुनराविष्कार की आवश्यकता का अनुभव होता है। प्राचीन भारतीय इतिहास को समझने के प्रयासों में प्राचीन ग्रंथों के अतिरिक्त पुरावशेषों का भी उपयोग किया गया है, जिसमें अभिलेखों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन के स्रोत के रूप में अभिलेखों की विशेष भूमिका है। इन अभिलेखों के द्वारा हम अतीत के साथ एक सीमा तक साक्षात् सम्पर्क कर पाते हैं। इनमें विन्यस्त या उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री समकालीन तथ्यों तक पहुँचने के लिए हमारा मार्ग प्रशस्त करती है। भारतीय इतिहास के अध्ययन में अभिलेखों के आभाव में बहुत कुछ अन्धकाराच्छन्न ही रह जाता है। उदाहरणार्थ चेदिवंशीय शासक खारवेल का यदि हाथी गुम्फा अभिलेख उपलब्ध न होता तो खारवेल इतिहास के लिए एक अज्ञात नाम ही रह गया होता। इसी तरह यदि हरिषेण की प्रयाग प्रशस्ति उपलब्ध न होती तो समुद्रगुप्त की महती विजय से हम अनभिज्ञ ही रह जाते। अशोक जैसे महान् शासक के बहु-आयामी व्यक्तित्व के अध्ययन के एक मात्र व्यवस्थित स्रोत, उसके काल के विभिन्न अभिलेख ही हैं। इसी तरह मौखरी, उत्तरगुप्त, राष्ट्रकूट, वाकाटक, चालुक्य तथा चोल आदि राजवंशों से सम्बन्धित अभिलेख न मिले होते तो इतिहास के अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों पर अनुद्घाटित ही रह जाते।

तिथिक्रम की उलझी हुई गुत्थी को सुलझाने में भी अभिलेखों से सहायता मिलती है। यथा-शक तथा सातवाहन वंश का उत्तराधिकार क्रम अभिलेख के माध्यम से ही निर्धारित हो सका है। इस तरह उत्तरगुप्त राजाओं के सम्बन्ध में अन्य स्रोतों के अभाव में अभिलेख ही हमारे सहायक हैं जिनके माध्यम से उनका उत्तराधिकार क्रम सुनिश्चित होता है।
वस्तुतः प्राचीन भारतीय इतिहास के सभी पक्षों—राजनीतिक स्थिति, सामाजिक अवस्था, धार्मिक अवस्था तथा शासन-व्यवस्था के साथ आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में ज्ञान हेतु समकालीन अभिलेख अनिवार्य स्रोत हैं।
यद्यपि अभिलेखों के मूल्यांकन में सतर्कता बरतनी पड़ती है कि ये अभिलेख शुद्ध ऐतिहासिक तथ्यों की प्राप्ति में कहाँ तक सहयोग देते हैं, तथापि इन अभिलेखों के एतिह्य पर विचार किया जाए तो उनकी उपयोगिता अवश्य स्पष्ट होती है। अन्य स्रोतों से उनकी पुष्टि उपयोगी होती है। उदाहराणार्थ कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लिखित अनेक तथ्यों की प्रामाणिकता अशोक के अभिलेखों से पुष्ट होती है हरिषेण की प्रयाग प्रशस्ति से रघुवंश में वर्णित विजय-यात्रा की पुष्टि होती है। इसी तरह हर्ष के अभिलेखों से बाणभट्ट के हर्षचरितम् में प्राप्त वर्णनों की पुष्टि होती है।

अभिलेखों के प्रकार

प्राचीन काल से ही अभिलेखों के लिए प्रस्तर (पाषाण) का उपयोग देश के विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक रूप से पाया जाता है। इसके प्रयोग का कारण इसका स्थायित्व था जैसा कि अशोक के स्तम्भ लेख दो में कहा गया है ‘चिलथितिका च होतलीत अर्थात इसमें स्थायित्व होता था। जहाँ अन्य सामग्रियाँ प्राकृतिक व्यतिक्रमों से विनष्ट हो सकती हैं, वहाँ प्रस्तर अभिलेख दीर्घ काल तक अपने मूल रूप को आक्षुण्ण बनाये रखते हैं। आर्थिक दृष्टिकोण से भी पाषाण पर अभिलेख उत्कीर्ण कराने में धातु की अपेक्षा कम खर्च पड़ता रहा होगा। प्रकारान्तर से स्तम्भलेख, शिलालेख एवं यूप पर उत्कीर्ण अभिलेख प्राप्त होते हैं।
पाषाण के अतिरिक्त धातु के माध्यम से भी अभिलेख उत्कीर्ण किये गये हैं। उदाहरणार्थ भट्टिप्रोलु स्तूप से चाँदी की सामग्रियों पर उत्कीर्ण लेख प्राप्त हुए हैं। इसी तरह अन्य धातुओं पर भी अभिलेख मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि धातुओं में ताँबे का प्रयोग अभिलेख उत्कीर्ण कराने के प्रायोजन से प्राचीन भारत में सबसे अधिक किया गया है। देश के विविध प्रान्तों से ताम्रपत्र प्रचुर संख्या में प्राप्त हुए हैं। ये अभिलेख पाषाण पर अंकित किये गये अभिलेखों की तरह विवरण देते हैं। ताम्रपट्टाभिलेखों पर भूमिदान का विवरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। प्रायः अग्रहार तथा ब्रह्मदेय दान का विवरण ताम्रपत्रों पर ही अंकित किया हुआ मिलता है। भूमि दानग्रहीता को प्रमाणस्वरूप ताम्रपट्ट प्रदान किया जाता था।

अभिलेखों की भाषा

भाषा की दृष्टि से विचार करने से स्पष्ट होता है कि पहली से आठवीं शती के बीच प्राकृत एवं संस्कृत के बहुसंख्य अभिलेख हैं। शक एवं सातवाहन राजाओं के अभिलेखों में साहित्यिक प्राकृत के साथ संस्कृत का मिश्रण प्राप्त होता है सातवाहन राजाओं के अभिलेखों में यत्र-तत्र संस्कृत का स्वतन्त्र प्रयोग भी दृष्टिगत होता है यथा—मथुरा से प्राप्त सोड़ास के अभिलेख।
दूसरी शताब्दी का रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत गद्य का बड़ा ही मनोहारी स्वरूप उपस्थित करता है। इसके पहले के कतिपय अभिलेखों में भी संस्कृत का उपयोग मिलता है। इस सन्दर्भ में धनदेव का अयोध्या अभिलेख1 उल्लेखनीय है। गुप्तकालीन अभिलेखों में शुद्ध संस्कृत का प्रयोग किया गया है। कई अभिलेख तो अपने भाषा-सौष्ठव से साहित्यिक कृति का स्मरण कराते हैं। इस प्रसंग में राजा चन्द्र का मेहरौली स्तम्भ लेख2 पूर्ण पद्यात्मक है जबकि समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति3 तथा स्कन्दगुप्त का भीतरी स्तम्भलेख4 गद्य एवं पद्य दोनों से ही युक्त हैं।
इसके अतिरिक्त अभिलेखों में स्थानीय सुविधा व प्रचलन के अनुसार क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग दक्षिण भारत में आरम्भ हुआ। आन्ध्रप्रदेश में तेलगू भाषा में अभिलेख छठी शताब्दी से लिखे जाने लगे तथा लगभग इसी समय कन्नड़ भाषा में अभिलेख मैसूर क्षेत्र में पाये गये। इस तरह भाषागत विविधता धीरे-धीरे अभिलेखों को समृद्ध करती गयी।

अभिलेखों की लिपि

प्रस्तुत अध्ययन में सन्दर्भित अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं। यह लिपि ई.पू. 500 से 300 ई. तक समान रूप से पायी जाती है। गुप्तकाल से ब्राह्मी लिपि में स्पष्ट भेद दिखलाई पड़ने लगा।
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1. जगन्नाथ दास रत्नाकर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, 5, भाग-1, 1999.
Also_Ep. ind; Vol-XX, 54
2. Sel. Ins., Vol-I, 283.
3. IHQ, Vol-XXIV, 104-13.
4. Sel. Ins., Vol-I, 321
चौथी शती से छठी शती तक नर्मदा के उत्तर में इसे ‘गुप्त लिपि’ नाम दिया गया, क्योंकि इस अवधि में मुख्यतया गुप्त शासक थे। गुप्त लिपि का प्रयोग संस्कृत भाषा में रचना हेतु सर्वत्र होने लगा। डॉ. राजबलि पाण्डेय1 के अनुसार ब्राह्मी एक भारतीय लिपि है जिसके उच्चारण तथा व्याकरण की अपनी विशिष्ट संरचना है। कुल मिलाकर इसके 64 चिह्न हैं। सम्भवतया ब्राह्मी के अक्षरों का ध्वनि सम्बन्धी विभाजन उच्चारण के आधार पर हुआ है। ह्रस्व और दीर्घ स्वरों के लिए भिन्न-भिन्न चिह्न हैं। अनुस्वार (ं), अनुनासिक (ँ) तथा विसर्ग (:) के लिए भी चिह्न उपलब्ध हैं। ह्रस्व और दीर्घ स्वरों के लिए भिन्न-भिन्न चिह्न नियत हैं। मात्राओं की सहायता से व्यंजनों के साथ स्वरों का योग अभिलेखों से स्पष्टतः देखने को मिलता है। अतः यह एक स्वतन्त्र लिपि है जहाँ उच्चरित अक्षर और लिखित वर्ण में अभिन्नता है।

कालान्तर में ब्राह्मी लिपि के अक्षरों में भी परिवर्तन आया। उदाहरणार्थ—कुषाणयुगीन ब्राह्मी, गुप्तयुगीन ब्राह्मी से भिन्न है। कुषाण काल के पूर्वार्द्ध में साधारणतया अभिलेखों की भाषा प्राकृत थी। धीरे-धीरे व्यापक रूप से संस्कृत का प्रचलन होने लगा। फलतः कतिपय नये अक्षरों का प्रयोग भी स्वाभाविक रूप से होने लगा। गुप्तकाल में ब्राह्मी लिपि विकास के नये शिखर पर पहुँची। मात्राओं का प्रयोग एक नवीन रीति से किया जाने लगा।
छठी से नौंवी शती तक परिवर्तित अक्षरों को फ्लीट तथा प्रिंसेप ने कुटिल लिपि कहा।2 इसी प्रकार कृमशः अक्षरों का स्वरूप परिवर्तित होता गया। कालान्तर में ग्यारहवीं व बारहवीं शताब्दी के अभिलेखों में प्रयुक्त अक्षरों का स्वरूप देवनागरी के आधुनिक अक्षरों से मिलता-जुलता है। धीरे-धीरे लिपि का यही विकसित स्वरूप ‘देवनागरी लिपि’ के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा।
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1. Indian Paleography,44
2. Quoted by Pandey, Raj Bali, Indian Paleography, 32-45.

अभिलेखों का वर्गीकरण

अभिलेखों का वर्गीकरण उनमें उपलब्ध तथ्य सामग्री के आधार पर किया जा सकता है। इस दृष्टि से इन्हें मुख्यता निम्नांकित छह श्रेणियों में रखा जा सकता है।
अभिलेखों का प्रकार उदाहरण
(अ) संस्मरणात्मक अभिलेख - अशोक का रुम्मिनदेई स्तम्भलेख1
(ब) दानसम्बन्धी अभिलेख - नहपानकालीन उषवदात का नासिक अभिलेख2
(स) समर्पणात्मक अभिलेख - पुलकेशिन द्वितीय का एहोल अभिलेख3
(द) शासनसम्बन्धी अभिलेख - हर्षवर्द्धन का बाँसखेड़ा अभिलेख4
(च) साहित्यिक अभिलेख - रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख5
(छ) व्यापारसम्बन्धी अभिलेख - पट्टवाय श्रेणी का मन्दसौर अभिलेख6

संस्कृत-अभिलेखों के अध्ययन की परम्परा : एक समीक्षा

प्राचीन भारतीय आर्थिक जीवन से सम्बन्धित ऐतिहासिक व सैद्धान्तिक दोनों ही दृष्टियों से अनेक शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत किये गये हैं। इस सन्दर्भ में पूर्ववर्त्ती अध्ययनों के अन्तर्गत कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यों को लिया जा सकता है इन सामग्रियों में मुख्य आधार के रूप में समकालीन अभिलेखों का आद्योपान्त अध्ययन नहीं किया गया है, बल्कि मुख्य रूप से तत्कालीन साहित्यिक सामग्री व यात्रा-वृत्तान्त ही इन कार्यों के आधार रहे हैं। संस्कृत अभिलेखों का अध्ययन अनेक अनुशासनों के विद्वानों की रुचि का विषय रहा है। भाषा, साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र तथा नृविज्ञान के शोधकर्ताओं ने इसमें गहरी रुचि ली है। मौर्योत्तर काल के अभिलेखों की लिपि पक्षों को लेकर ठाकुर प्रसाद वर्मा (1967), रवीन्द्र वसिष्ठ (1983), कमला देवी (1983), तथा कुषाण अभिलेखों पर हरित्रिमा (1981) ने महत्त्वपूर्ण अध्ययन किया है।
वाकाटक कालीन अभिलेखों पर महामहोपाध्याय वी.वी मिराशी (1963) एवं भगवती प्रसाद (1980) तथा गुप्तकालीन अभिलेखों के सामाजिक, सांस्कृतिक पक्षों को लेकर तृप्ता त्रिपाठी (1976), सुरेखा गोयल (1978), रामधारी सिंह दहिया (1978), मधु जसोरिया (1978), मंजु तुली (1979), अश्विनी कुमार अवस्थी (1981) तथा प्रेम शर्मा (1987) ने विशिष्ट कार्य किया है।
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1. Hultzs, CII, Vol-I, 164.
 2. Ep. Ind; Vol-VIII, 82.
3. IA, Vol-V,67-77
4. Ep. Ind; Vol-IV, 208-11.
5. IA, Vol-VII, 257.
6. Sel. Ins., Vol-I, 299.
मैत्रक अभिलेखों पर राजकुमार तिवारी (1986), हर्षकालीन अभिलेखों पर परमानन्द गुप्त (1968) तथा कलचुरि अभिलेखों के विविध पक्षों को लेकर वी.वी मिराशी (1955), उषादेवी बंसल (1979) इत्यादि के द्वारा प्रस्तुत कार्य उल्लेखनीय है। प्राचीन भारतीय संस्कृत अभिलेखों को क्षेत्र विशेष के आधार पर वर्गीकृत कर, उनके सांस्कृतिक, सामाजिक तथा अन्यान्य पक्षों को लेकर जी.वी. आचार्य (1938), ए.एस.गाड्रे (1943), पी.बी.दिशकलकर (1944), वी.वी.मिराशी (1955), एस.के.मैती तथा आर.आर.मुकर्जी (1967), लक्ष्मी विलास डबराल (1967), भारत कुमार राज (1967), मीरा रे (1972), मनीशा मुखोपाध्याय (1972), एम.एम. शर्मा (1978), बी. सहाय (1978), प्रणव कुमार दत्त (1980), पी.के.अग्रवाल (1983), के.के.थपलियाल (1985), पूनम बाला (1992) ने विवेचनात्मक अध्ययन किया है।

प्रस्तुत अध्ययन प्राचीन भारत के आर्थिक जीवन पर केन्द्रित है। अतः इस सन्दर्भ में किये गये अध्ययनों का किंचित् विस्तृत विवेचन यहाँ पर अप्रसांगिक नहीं होगा। उपेन्द्रनाथ घोषाल (1992) का शोधकार्य ‘Contribution to the History of Hindu Revenue System’ एक महत्त्वपूर्ण अध्ययन है। इसमें तीसरी शती ई. पू. से लेकर तेरहवीं शती तक उत्तर भारत के राजस्व इतिहास की सामान्य रूपरेखा का पुनर्निर्माण करने का प्रयास किया गया है। मनुस्मृति और महाभारत में प्राप्त कराधान के व्यवहारिक नियमों को आधुनिक अर्थशास्त्री ऐडम स्मिथ, सिस्मौण्डी इत्यादि द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के साथ सम्बद्ध किया है। इस क्रम में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि आधुनिक कराधान व्यवस्था मूलभूत सिद्धान्त प्राचीन भारत में विद्यमान थे। परम्परागत भारतीय साहित्य में आर्थिक सिद्धान्तों की रूपरेखा प्रस्तुत करने में लेखक ने जिन संस्थाओं व आर्थिक सिद्धान्तों का विवेचन किया है, जगह-जगह उनकी तुलना तत्कालीन पश्चिमी संस्थाओं से भी की है। इस अपेक्षाकृत विस्तृत अध्ययन में अभिलेखीय पक्ष लगभग मौन रहा है।

एम.ए. बुच (1924) ने ‘Economic life in Ancient India’ शीर्षक कृति में प्राचीन भारतीय आर्थिक जीवन को ग्यारह विभिन्न उपभागों में रखकर प्रस्तुत किया है। यह पूर्णतः भारतीय साहित्यिक साक्ष्यों पर आधारित है। धन के प्रति हिन्दू दृष्टिकोण को आधार बनाकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विविध पक्षों को वैदिक साहित्य, महाभारत, स्मृति साहित्य तथा बौद्ध साहित्य के आलोक में प्रस्तुत किया गया है।
आर.एस.शर्मा (1966) के ‘Light on Early Indian Society and Economy’ शीर्षक शोध-प्रबन्ध में समाज और आर्थिक पक्ष का समन्वयात्मक विश्लेषण तत्कालीन साहित्य को आधार बनाकर किया गया है। यह अध्ययन प्राचीन भारतीय समाज में सामन्तवाद की विकसित होती हुई प्रवृत्ति को रेखांकित करता है। लेखक ने इसका मूल आधार सामाजिक जीवन के आर्थिक पहलू को माना है।

द्विजेन्द्र नाथ झा (1967) की ‘Revenue System in Post Mauryan and Gupta Times’’ शीर्षक रचना में ईसा पूर्व 185 से सन् 550 ई. तक की कालावधि में राजस्व व्यवस्था के स्वरूप को प्रस्तुत किया है। यह अध्ययन तत्कालीन विधिक ग्रंथों, साहित्यिक रचनाओं तथा आवश्यकतानुसार पुरालेखीय स्रोतों पर आधारित है। इसमें मौर्योत्तर तथा गुप्तकाल में राजस्व-व्यवस्था के अन्तर्गत कराधान के सिद्धान्त व अधिकार, राजकीय कर तथा सम्बद्ध अधिकारियों का क्रमबद्ध अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
एस.के.मैती (1970) ने ‘Economic life in Northern India in the Gupta Period (A.D. 300-500)’ शीर्षक ग्रन्थ में मुख्यतः फलित ज्योतिष, मुद्राशास्त्र, गुप्तकालीन साहित्य, चीनी, ग्रीक व लैटिन यात्रियों के यात्रावृत्तान्तों को आधार बनाकर गुप्तकालीन आर्थिक जीवन की एक रूपरेखा प्रस्तुत की है। यह रचना सांस्कृतिक समृद्धि, राजनीतिक प्रशासन तथा आर्थिक स्वतन्त्रता व समृद्धि के पक्ष को उद्घाटित करती है।

हरिपद चक्रवर्ती (1978) की पुस्तक ‘India as Reflected in the Inscriptions of the Gupta Period’ एक महत्त्वपूर्ण अध्ययन है। यहाँ गुप्तकालीन मुख्य अभिलेखों के आलोक में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक तत्त्वों का आकलन किया गया है। यह मुख्यतः गुप्तकाल और उत्तर भारत के प्रतिनिधि अभिलेखों पर आधारित है।
के.एम.श्रीमाली (1987) ने अपनी पुस्तक ‘Agrarian Structure in Central India and The Northern Deccan’ में मध्य भरत से जुड़े पश्चिम भारत के एक विशेष क्षेत्र की कृषिगत संरचना को स्पष्ट किया है। यह अध्ययन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें प्राचीन पश्चिमी भारत से प्राप्त साहित्यिक व पुरातत्त्वीय साक्ष्यों के आलोक में कृषि व्यवस्था के स्वरूप को व्यवस्थित किया गया है।
सरोज दत्त (1995) ने Land System in Northern, India c A.D.400-c A.D.700 शीर्षक ग्रन्थ में उत्तरभारतीय भूमि व्यवस्था को भू-राजस्व, भू-स्वामित्व, भू-प्रकार, भू-सर्वेक्षण के अन्तर्गत विवेचित किया है। इसमें प्राचीन विधि ग्रन्थों के अतिरिक्त अभिलेखों को भी आधार बनाया गया है।

मंजु तुली (1979) द्वारा किया गया ‘गुप्त अभिलेखों का आर्थिक अध्ययन’ तथा दूसरा सुजाता साहनी (1981) द्वारा ‘मालव अभिलेख : आर्थिक एवं राजनीतिक अध्ययन, 600 ई. से 1200 ई. तक’ मह

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